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अम॑न्दा॒न्त्स्तोमा॒न्प्र भ॑रे मनी॒षा सिन्धा॒वधि॑ क्षिय॒तो भा॒व्यस्य॑। यो मे॑ स॒हस्र॒ममि॑मीत स॒वान॒तूर्तो॒ राजा॒ श्रव॑ इ॒च्छमा॑नः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

amandān stomān pra bhare manīṣā sindhāv adhi kṣiyato bhāvyasya | yo me sahasram amimīta savān atūrto rājā śrava icchamānaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अम॑न्दान्। स्तोमा॑न्। प्र। भ॒रे॒। म॒नी॒षा सिन्धौ॑। अधि॑। क्षि॒य॒तः। भा॒व्यस्य॑। यः। मे॒। स॒हस्र॑म्। अमि॑मीत। स॒वान्। अ॒तूर्तः॑। राजा॑। श्रवः॑। इ॒च्छमा॑नः ॥ १.१२६.१

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:126» मन्त्र:1 | अष्टक:2» अध्याय:1» वर्ग:11» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:18» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब सात ऋचावाले १२६ एकसौ छब्बीसवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में इस संसार के राज्य के अधिकार में कौन न स्थापन करने योग्य है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - (यः) जो (अतूर्त्तः) हिंसा आदि के दुःख को न प्राप्त और (श्रवः) उत्तम उपदेश सुनने की (इच्छमानः) इच्छा करता हुआ (राजा) प्रकाशमान सभाध्यक्ष (सिन्धौ) नदी के समीप (क्षियतः) निरन्तर वसते हुए, (भाव्यस्य) प्रसिद्ध होने योग्य (मे) मेरे निकट (सहस्रम्) हजारों (सवान्) ऐश्वर्य योग्य (अमन्दान्) मन्दपनरहित तीव्र और (स्तोमान्) प्रशंसा करने योग्य विद्यासम्बन्धी विशेष ज्ञानों का (मनीषा) बुद्धि से (अमिमीत) निरन्तर मान करता, उसको मैं (अधि) अपने मन के बीच (प्र, भरे) अच्छे प्रकार धारण करूँ ॥ १ ॥
भावार्थभाषाः - जब तक सकल शास्त्र जाननेहारे विद्वान् की आज्ञा से पुरुषार्थी विद्वान् न हो, तब तक उसका राज्य के अधिकार में स्थापन न करे ॥ १ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

कोऽत्र राज्याधिकारे न स्थापनीय इत्याह ।

अन्वय:

योऽतूर्त्तः श्रव इच्छमानो राजा सिन्धौ क्षियतो भाव्यस्य मे सकाशात् सहस्रं सवानमन्दान् स्तोमांश्च मनीषाऽमिमीत तमहमधिप्रभरे ॥ १ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अमन्दान्) मन्दभावरहितान् तीव्रान् (स्तोमान्) स्तोतुमर्हान् विद्याविशेषान् (प्र) (भरे) धरे (मनीषा) बुद्ध्या (सिन्धौ) नद्याः समीपे (अधि) स्वीयचित्ते (क्षियतः) निवसतः (भाव्यस्य) भवितुं योग्यस्य (यः) (मे) मम (सहस्रम्) (अमिमीत) निमिमीते (सवान्) ऐश्वर्ययोग्यान् (अतूर्त्तः) अहिंसितः (राजा) (श्रवः) श्रवणम् (इच्छमानः) व्यत्ययेनात्रात्मनेपदम् ॥ १ ॥
भावार्थभाषाः - यावदाप्तस्य विदुष आज्ञया पुरुषार्थी विद्वान् नरो न भवेत्तावत्तस्य राज्याधिकारे स्थापनं न कुर्यात् ॥ १ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात राजाच्या धर्माचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाचे मागील सूक्ताच्या अर्थाबरोबर साम्य आहे. हे जाणले पाहिजे. ॥

भावार्थभाषाः - जोपर्यंत संपूर्ण शास्त्र जाणणाऱ्या विद्वानाच्या आज्ञेने जो पुरुषार्थी विद्वान बनणार नाही तोपर्यंत त्याला राज्याचा अधिकार देऊ नये. ॥ १ ॥